कथाकार चिंतक गोविन्द मिश्र ने ‘साहित्यकार होना’ जैसी कृति को ‘आत्मकथा’ के रूप में नहीं लिखा है। न इस कृति को आत्मकथानुमा नक्शेबाजी से भरा मायावी यथार्थ का रंगमहल बनाया है। एक रचनाकार के रचनानुभव इस कृति में अनेक विविधताओं, जीवन-छवियों, राग-विरागमयी जीवन-स्मृतियों, आत्मसाक्षात्कार के अद्वितीय क्षणों के साथ मौजूद हैं। आत्मसाक्षात्कार-आत्मालोचन की प्रक्रिया है और आत्मसमर्पण, आत्म-उन्मोचन की सजग जीवन-दृष्टि, जीवन-प्रेरणा। जीवन-प्रेरणा के कमल नई साहित्य-प्रवृत्ति की तरह खिलते हैं और कला के मूलतत्त्वों की बहस स्वत: शरू हो जाती है। बचपन और किशोरावस्था, जवानी और वृद्धावस्था का संघर्ष आत्मसंघर्ष बनकर रचना में आकार पा जाता है। यदि भाव-विचार को वास्तववादी होना है तो जो रचनाकार अपने को पूरी तरह निचोड़कर रचना में मिल जाता है। गोविन्द मिश्र को जीवनानुभव अपनी तरह की चुनौतियाँ देती हैं और कला के वस्तु और रूप के प्रश्न उठ खड़े होते हैं। आज की जटिलताओं-प्रश्नाकुलताओं, चिंताओं के प्रश्न तनावधिराव डालते हैं। मानव वास्तविकता के मूल मार्मिक पक्ष संवेदनात्मक-आकलन के लिए मचल उठते हैं और वे ‘आत्मकथा’ न लिखकर अपनी रचना-प्रक्रिया, रचनाप्रेरणा, रचना हेतुओं, रचना-अभिप्रायों, अभिप्रेतों, रचना की आंतरिक गतियों, मनोभूमिकाओं को उद्घाटित करने लगते हैं। यह सब होने पर भी अनेक शीर्षकों में विभाजित इस कृति की समग्रता खंडित नहीं है, इसमें रचना-भूमि का विस्तार है और आत्मालोचन का ईमानदार प्रयत्न।
रचनाकार गोविन्द मिश्र ज्ञात-अज्ञात रूप से कला के वस्तुतत्त्व अंतर्तत्त्व की व्यवस्था को लेकर विवेक-वयस्क तरंग में रमते हैं। उनकी मानसिक दृष्टि के सम्मुख इलाहाबाद और बांदा, प्रोफेसर देव और सप्तर्षि का आलोक अतर्रा पूर्व जीवनानुभवों से आलोकित हो उठता है। यह वह कथा-भूमि है कि रचना के अंतर्नेत्र जीवनमूल्यों, अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए ‘मैं और मैं’ के रूप में निजता को त्याग कर निर्वैयक्तिक भाव-भूमि पर आ जाते हैं। भावों की संप्रेषणीयता कला के साधारणीकरण में सहज होकर गतिवान हो जाती है। उनकी कल्पना उद्दीप्त होकर ‘प्राक्कथन या उपकथन’ के रूप में संवेदना से आलुप्त उस मूल बीजभाव को जीवन मूल्यों से
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