मैंने प्रो. इन्द्र नाथ चौधुरी के विशेष आग्रह पर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर एवं गांधी के संदर्भो को लेकर एक पुस्तक लिखना स्वीकार कर लिया। इसलिए भी लिखना स्वीकार कर लिया कि मैं ‘जनसत्ता’, हिंदुस्तान’, ‘नवभारत टाइम्स’ तथा हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में इन महापुरुषों के चिंतन पर निरंतर लेख लिखता रहा हूँ। भारतीय सांस्कृतिकसामाजिक नवजागरण तथा भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की आंतरिक लय और प्रेरक शक्तियों पर भी मेरा ध्यान केंद्रित रहा है। इस ध्यान केंद्रण में डॉ. लोहिया और श्री जयप्रकाश नारायण का भी विशेष प्रभाव मेरी चेतना पर रहा है। भारतीय साहित्य पर कार्य करते हुए मेरा ध्यान नारायण गुरु, कुमार आशान, महात्मा फुले तथा सहजानंद सरस्वती पर भी कम नहीं गया। मैंने यथासंभव उनके विचारों के बीज-भावों को ग्रहण करने, समझने का प्रयास किया। कितना समझ पाया यह अलग बात है। इस तरह इस पुस्तक के लेखों में डॉ. अंबेडकर के चिंतन का वैचारिक-मंथन है। आज कह सकता हूँ कि यह पुस्तक मेरे लंबे वैचारिक मंथन का परिणाम है जिसे मैंने बहसों-विवादों से भी गति प्रदान की है।
<दलित विमर्श की वैचारिकी पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में चर्चापरिचर्चा की परिव्याप्ति चकित करनेवाली है। उसी हवा में मैंने ‘अंबेडकर और समाज-व्यवस्था’ (1996) पुस्तक लिखी। जिसका पाठकों ने भरपूर स्वागत किया। अगर मेरी याददास्त धोखा नहीं दे रही है तो अंबेडकर के चिंतन पर पहली हिंदी में पुस्तक थी। मैं तो अंबेडकर तथा डॉ. लोहिया को लगाकर पढ़ रहा था—उसी धुन में दलित-साहित्य की ओर प्रवृत्त हुआ।
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