प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन और लोकगीतों की संवेदना
डॉ. सत्य प्रिय पाण्डेय की यह पुस्तक भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम और लोकगीतों की संवेदना’ अठारह सौ सत्तावन के मुक्ति संघर्ष का एक पाठ रचती है। इस मुक्तिसंग्राम में अमीर-गरीब, किसान-मजदूर, राजारंक, सामंत साहूकार, हिंदू-मुसलमान सभी ने कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से युद्ध किया। इसलिए इस क्रांति ने जनता की स्मृति में स्थायी निवास बनाया। मैं जानता हूँ कि आज के उत्तर-आधुनिक समय में प्रथम भारतीय मुक्ति संग्राम की लोकगीतों में स्मृति पर लिखना अपने सिर बला को लेना है। अब भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, निराला जी, अज्ञेय जी, माखनलाल चतुर्वेदी का जमाना तो रहा नहीं कि स्मृति पर कई कोणों से सोचा जा सके। ये लोग ‘स्मृति’ को ‘परंपरा’ का पर्याय मानते रहे और ‘लोक’ का अर्थ ‘आलोक’ करते रहे। ‘लोक’ को आधार बनाकर हमारे कवि-कलाकार उसकी स्मृति को निरंतरता और परिवर्तनशीलता को परखने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते रहे। लोक में मानव का सामूहिक मन या अवचेतन निवास करता है और उसी के भीतर से आदिम बिंबों की निष्पत्ति होती है। लोक में हमारी मुक्ति-संग्राम की चेतना जागरण, अन्याय-शोषण के विरुद्ध संकल्पबद्ध साम्राज्यवादी लुटेरी शक्तियों को खदेड़ने और रानी लक्ष्मीबाई । का प्रेरणा प्रतीक बन गई । आज यह सब हमारे इतिहास का एक बहुलार्थक पहल है जिसकी स्मृति से जागरण का प्रकाश बरसता है।
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