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मैं ‘आत्म-रहस्य’ को पढ़ गया। इसमें लेखक ने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि न केवल विभिन्न धर्म और दर्शन, प्रत्युत आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान भी सच्चिदानन्द-स्वरूप आत्मा का प्रतिपादन करते हैं। विभिन्न विचारकों के दृष्टिकोण विभिन्न हैं। यह भेद कुछ तो विचारकों के रुचि-भेद के कारण उत्पन्न हुआ है, कुछ देशकालगत परिस्थितियों ने उनको इस बात के लिए विवश किया कि पदार्थ के पृथक-पृथक पहलुओं को। अधिक महत्त्व दें। इस नयभेद के कारण पदार्थ के वर्णन में वैषम्य का पाया। जाना स्वाभाविक है, परन्तु यदि वैषम्य के कारण को ध्यान में रखकर निष्पक्ष तर्क से काम लिया जाय तो विभिन्न मतों का समन्वय करके आत्मा के स्वरूप का परिचय मिल सकता है। आत्मा के स्वरूप के साथ-साथ जगत् के स्वरूप, कर्मफल की प्राप्ति-अप्राप्ति आदि कठिन समस्याओं की ग्रंथियाँ भी खुल सकती हैं। रतनलालजी ने ग्रंथियों को खोला भी है। वह जिस परिणाम पर पहुँचे हैं, वह बहुत दूर तक तो, वार्हस्पत्य विचारधारा को छोड़कर, सभी भारतीय दर्शनों की समान भूमिका और सम्पत्ति है। इसके आगे उनके विचार उन विशेष तथ्यों की ओर झुके हैं, जिनका प्रतिपादन जैन आचार्यों ने किया है।
……जहाँ तक पुस्तक का उद्देश्य यह प्रतिष्ठापित करना है कि आत्मतत्त्व विचारणीय है, हमको जगत् के भौतिक स्वरूप-मात्र को इतिश्री न मान लेना चाहिए, विचार में असहिष्णु होकर इदमित्थमेव न मानकर विभिन्न पहलुओं को देखकर संतुलन करना चाहिए, आत्म-स्वरूप को पहचानने के लिए मनन के साथ-साथ त्याग, तप, समाधि की आवश्यकता है, वहाँ तक मैं रतनलालजी को उनकी सफलता पर बधाई देता हूँ। प्राच्य आर पाश्चात्य विचारों का एक ही जगह अच्छा संग्रह हुआ है और यह संग्रह बुद्धि को अंकुश देकर सोचने के लिए विवश करता है।
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