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प्रस्तुत पुस्तक के रचयिता श्री सत्यनारायण गोयनका का जीवन जनकल्याण के लिए अनेक वर्षों से समर्पित है। उनकी आंतरिक इच्छा है कि विश्व के प्रत्येक प्राणी का जीवन शांति से परिपूर्ण और आनंद से भरपूर हो। इस पावन ध्येय को सामने रखकर उन्होंने स्वयं जिस मार्ग का अनुसरण किया है और जिस पर अब देश-विदेश के असंख्य भाई-बहनों को चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, वह अद्वितीय है। उनका संबंध न किसी जाति से है, न धर्म से; न किसी वर्ग से है, न किसी राष्ट्र से। वह सार्वजनीन, सार्वकालिक और सबके हित का मार्ग है। यह उस धर्म का मार्ग है, जिसका आधार प्रेम है और जिसकी धुरी मानवता है।
श्री सत्यनारायणजी ने धर्म के मर्म को समझा है और उसका जीवन में समावेश करने के लिए उन्होंने विपश्यना की साधना-पद्धति को अपनाया है। वह स्वयं उससे लाभान्वित हुए हैं और दूसरों को उसका लाभ पहुँचा रहे हैं।
प्रस्तुत पुस्तक चार खंडों में विभक्त है। पहले खंड में उन्होंने बताया है। कि वास्तविक धर्म क्या है। दूसरे खंड में उन्होंने विपश्यना के संबंध में जानकारी दी है। तीसरा खंड इस पुस्तक की जान है। उसमें उनके वे प्रवचन दिए गए हैं, जो वह विपश्यना-शिविर के ग्यारह दिनों में दिया करते हैं। अंतिम प्रवचन दीक्षा-प्रवचन है। इन प्रवचनों से उन्होंने न केवल विपश्यना के महत्व पर प्रकाश डाला है; अपितु शिविर के प्रत्येक दिन की साधना को बड़े विस्तार से समझाया है। ये प्रवचन इतने सरल, इतने सुबोध है कि प्रत्येक साधक सहज ही उन्हें ग्रहण कर लेता है। अंतिम खंड में कुछ प्रेरक प्रसंग संग्रहीत किए गए हैं।
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