प्रेमचंद सम्पूर्ण दलित कहानियाँ
प्रेमचंद का साहित्यकार एक जागृत नीतिप्राण सामाजिक चेतना का वाहक है और उसे नैतिक यथार्थवाद की स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में अच्छी पहचान-परख है। प्रेमचंद और मैथिलीशरण गुप्त में एक गहरा साम्य है – दोनों ही एक युग से हमें दूसरे युग में ले जाकर तमाम चिंताओं, यातनाओं, अस्वीकार के साहस के साथ खड़ा कर देते हैं। दोनों का चिंतन लीक तोड़ कर क्रांतिकारी है और दोनों कृषक संवेदनाओं, व्यथाओं, दलित पीड़ाओं को जीवन भर भोगते-लिखते हैं।
प्रेमचंद का सरोकार सत्याग्रह-युग के नैतिक मानस से है। नतीजा यह हुआ कि उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया सामाजिक यथार्थ कटुतर और अधिक नंगा होता गया, जहाँ भीतर का संघर्ष उबलकर बाहर आता गया। एक नैतिक मूल्य-निष्ठा, चाहे वह किसान हो, स्त्री हो, दलित होइन सभी ने लगातार प्रेमचंद को प्रेरणा दी। अज्ञेय जी ने ‘स्मृति लेखा’ में ‘उपन्यास सम्राट्’ संस्मरण में कहा है कि ”यथार्थ दर्दनाक है इसलिए उसे रंगत दे दी जाए, ऐसा उन्होंने कभी नहीं किया; लेकिन दर्द का कारण देखने के लिए आँख देखनेवाले के संवेदन में है। इसे भी वह नहीं भूले।” प्रेमचंद ‘सिपाही’ भी रहे पर उन्होंने अपनी मुख्य भूमिका सामाजिक चेतना के जागृत वाहक के रूप में देखा है। इस लोकतंत्रवाद के मूल्यांधता से भरे समय में प्रेमचंद की स्मृति का बहुत बड़ा अर्थ है। कारण इसका यह है। कि वे लोकमंगल, राष्ट्रीयता, जातीय-स्मृति, परंपरा, इतिहास की परिणति में साम्राज्यवाद के विरोध का लक्ष्य साधते रहे। आज उनको ‘सिपाही’ या “उपन्यास सम्राट् कहना अटपटा लगता है। इसलिए अटपटा लगता है कि प्रेमचंद के साहित्यकार के लिए साधना का समाज सेवा का महत्त्व सर्वोपरि है। उन्होंने अतीत का पुराना राग नहीं गाया, अनुभूति की ईमानदारी से अपनी वर्तमान अवस्था का ‘पाठ’ उठाते रहे। इस उन्होंने खुली आँखों से समाज-राजनीति को देखकर प्रस्तुत किया । विस्सगोई की जमीन से उठकर समाज-सुधार, आदर्शवाद और राज चिंतन के मैदान में आए। उनकी यह विचारधारा उनके सजन प्रतिबिंबित है। यह पूरा चिंतन मनुष्य के दोहन के विरुद्ध है। यहाँ केट है व्यापक मानवतावाद। आज प्रेमचंद का राजनीतिक इस्तेमाल दु:ख का विषय है। इस दृष्टि से मैथिलीशरण गुप्त और प्रेमचंद न रचना वस्त के विषय में तुलनीय है न रचना दृष्टि में। प्रेमचंद के चरित्र अधिकतर देहाती कृषिजीवी समाज के चरित्र हैं। फिर प्रेमचंद ब्राह्मण हो या शूद्र-दलित, ‘ उसे गढ़ते नहीं हैं, प्रस्तुत करते हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों को इसी दृष्टि से समझा जाना चाहिए।
मुझे इस प्रश्न में दिलचस्पी नहीं है कि प्रेमचंद आज प्रासंगिक हैं या अप्रासंगिक। आधुनिक’ हैं या परंपरावादी’? लेकिन मैं यह मानता हूँ कि प्रेमचंद की ‘आधुनिकता’ अपने रूप में-समाज-संस्कृति को परिभाषित करने में है। प्रेमचंद की क्लासिक कृतियों को समय कभी पुराना नहीं बना पाएगा। इसी विश्वास के साथ प्रेमचंद साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. कमल किशोर गोयनका से मैंने बड़े आग्रह के साथ ‘प्रेमचंद : संपूर्ण दलित कहानियाँ’ का संकलन तैयार करवाया है। डॉ. गोयनका में श्रम करने की अनुसंधान के क्षेत्र में अद्भुत क्षमता है। उनकी यह संकलितसंपादित कृति इसी क्षमता का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस श्रमसाध्य कार्य के लिए मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ।
मुझे विश्वास है कि हिंदी के पाठक समाज में इस अनूठी-अपूर्व संकलन का भरपूर स्वागत होगा। इसी विश्वास के साथ मैं यह पुस्तक सहदय समाज के हाथों में सौंप रहा हूँ।
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