भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में करुणादया-सहानुभूति की त्रिवेणी प्रकाशित रही है। यह उनका व्यापक मानववाद ही था जो किसी को अपनी आत्मीयता से वंचित नहीं रखता था। वे ऊपर से कठोर दिखती थीं पर थीं मोम की तरह मुलायम। उनके करुणा-ममता-वात्सल्य भाव को लेकर प्रसिद्ध लेखिका पद्मा सचदेव ने इंदिरा गांधी : मेरी माँ’ शीर्षक से यह मार्मिक पुस्तक लिखी है। उन्होंने दो शब्द’ लिखते हुए कहा है कि ‘श्रीमती गांधी लौह-स्त्री थीं। कांता को बेटी रूप में पाकर वे एक बेटी की माँ हो गईं। इसमें माँ-बेटी की ही कहानी है।’ इस कहानी में काल माँ-बेटी से हृदय-संवाद करता मिलता है। पूरी भारतीय कल्पना में माँ पूजने की वस्तु है और एक अनमोल वात्सल्य की मूर्ति। यहाँ कांता की करुण कहानी है जिसके संदर्भगत अनेक अर्थ हैं। कैसे नेहरू परिवार करुणा का सागर था और प्रसन्न होकर भलाई करने में उस परिवार को सुख मिलता था। इस व्यापक मानवकरुणा से हमें अहसास हो सकता है कि मनुष्य की प्रकृति में शील और सात्त्विकता के मनोविकार का निवास रहता है। श्रद्धा का विषय किसी-न-किसी रूप में सात्त्विकशील ही होता है। अत: करुणा और सात्त्विकता का सीधा संबंध है। तभी तो करुणा अपना बीज अपने आलंबन या पात्र में नहीं फेंकती। जिस पर करुणा की जाती है वह बदले में करुणा करनेवाले पर करुणा नहीं करता। वह तो श्रद्धा-भक्ति एवं प्रेम में निमग्न हो जाता है। इस पुस्तक की अंतर्वस्तु का यही सार-संक्षेप है।
मैं लोकमंगलकारी, लोक-रक्षणकारी श्रीमती इंदिरा जी के इसी रूप को पद्मा सचदेव की लेखनी के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है कि इसे व्यापक पाठक समाज की सहृदयता प्राप्त होगी।
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