अज्ञेय जी की एक प्रसिद्ध काव्य-पंक्ति है-दुःख सबको माँजता है। जिसे माँजता है उसे नए जीवनानुभवों से चमका देता है, भावों का विरेचन कर देता है, तमाम विकृतियों से मुक्ति दिलाकर भावों में पावनताजनित विवेक भर देता है। इसलिए जीवन में सुख से ज्यादा दुःख की महिमा है। मनुष्य सुख अकेले भोगना चाहता है-दु:ख सबको बाँटकर। अंततः दु:ख के भीतर से इस जीवन-दर्शन की निष्पत्ति होती है कि जैसा दु:ख हमने सहा, जिन कठिन रोग, शोक, यातना, व्याधि से हम गुजरे, वैसे कठिन मोड़ों से किसी भी अन्य को न गुजरना पड़े। हमारी परंपरा में दैविक, दैहिक, भौतिक तापों की अनेक रूपों, कथाओं के साथ चर्चा मिलती है। महाभारत तो दुःखगाथाओं का विश्वकोश है-द्रौपदी से ज्यादा दुःख संसार की किस नारी ने झेले हैं। लगातार दु:खों से संघर्ष करना, जूझना ही जीवन की जय-यात्रा है-संघर्षों से मनुष्य ने जीवन की संजीवनी शक्ति प्राप्त की है।
यहाँ डॉ. निवेदिता बक्शी ने अपने भोगे-सहे दुःखों का यथार्थ कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। कठिन मोड़ केवल नाम नहीं है-अटूट जिजीविषा की विजयगाथा है। मानव का सच यही है कि दुःखों-अभावों-यातनाओं से जूझते हुए उसने कभी भी अपने को पराजित अनुभव नहीं किया। निवेदिता जी कैंसर जैसे भयावह रोग से ग्रस्त हो गई थीं-उन्होंने इस रोग के सामने घुटने नहीं टेके, विजय प्राप्त की। इस पुस्तक की अंतर्यात्रा से रोग-शोक से पीड़ित मानव में आशा-उत्साह-विजय का संचार होगा। रोग से लड़ने की प्रेरणा मिलेगी।
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