आर्य द्रविड़ भाषाओ का अंत संबंध
पश्चिमवाद के अंध-समर्थक विद्वानों में यह धारणा रही है कि आर्य और द्रविड़ भाषाएँ दो भिन्न भाषा परिवारों से संबंधित रही हैं। ऐसी स्थिति के कारण इन दो भाषाओं में कोई भी भीतरी रिश्ता खोजना व्यर्थ का प्रयास है। इस अलगाववादी, भेदभाववादी, आपस में मनमुटाव को बढ़ावा देनेवाली आर्य-द्रविड़ अवधारणा ने इस देश की भाषा-संस्कृति में एक लंबे समय से एक जहरीला परिवेश निर्मित किया है। प्रायः यह बताया जाता रहा है कि आर्यों ने द्रविड़ों से युद्ध किया। उन्हें लूटने-पीटने के बाद दक्षिण में खदेड़ दिया। इस भ्रामक थियरी ने अपार घृणा के बीज भाव पैदा किए। हमने काफी समय के बाद शोध एवं चिंतन से यह जान पाया कि औपनिवेशिक गुलामी तथा औपनिवेशिक आधुनिकता ने यह काम किया है। इस आर्यअनार्य, आर्य-द्रविड संघर्ष के सिद्धांत को ध्वस्त करते हुए भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण के नायक रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतवर्ष में इतिहास की धारा नामक अपने शोध निबंध में लिखा कि किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू-सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्त्वज्ञानी नहीं थे, पर उनके पास कल्पनाशक्ति थी, वे संगीत और वास्तुकला में कुशल थे। सभी कला-विधाओं में वे निपुण थे। उनके गणेश-देवता की वधू कला वधू थी। आर्य-द्रविड़ मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ जिसमें विरोधों के सामंजस्य की अद्भुत शक्ति थी।’
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