आज विकास की चर्चा सबसे ऊपर है। विकास का आधार है शिक्षा और शिक्षा का मेरुदंड है शिक्षक। नई पीढ़ी के व्यक्तित्व निर्माण में उसके शिक्षकों की बुनियादी ही नहीं प्रधान भूमिका होती है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था को मिली औपनिवेशिक विरासत में शैक्षिक संस्थाओं का स्वरूप सरकारी और निजी दो तरह का रहा है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में वैयक्तिक प्रयासों से स्थापित विद्यालयों के पीछे समाज सुधार और मुक्ति कामना सक्रिय थी। फलतः देश भर में वैयक्तिक प्रयासों से अनके विद्यालय शुरू किए गए और निष्ठा के साथ चलाए गए। सरकार द्वारा की गई शिक्षा व्यवस्था औपनिवेशिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन थी हालाँकि उसी के भीतर से ही आजादी की मानसिकता का विस्तार-प्रसार भी हुआ।
आजादी के बाद सरकार ने शिक्षा व्यवस्था के दायित्व को गंभीरतापूर्वक लिया। किंतु निजी विद्यालयों के शिक्षा प्रबंध पर सरकार का भरपूर अंकुश न होने के कारण उनमें व्यापार की वृत्ति पनपने लगी। सरकारी विद्यालयों में भी शिक्षकों की कई तरह की समस्याएँ रहीं जिनको लेकर शिक्षकों को बार-बार आंदोलन चलाने पड़े।
केदारनाथ पांडेय की यह पुस्तक बिहार के शिक्षक आंदोलनों से जुड़े व्यक्तियों पर लिखे गए संस्मरणों के माध्यम से बिहार की शिक्षा व्यवस्था का ऐतिहासिक दस्तावेज है। शिक्षा को मौलिक अधिकार मान लिए जाने के बावजूद आज की हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था में अनेक तरह की समस्याएँ और सवाल मौजूद हैं। आशा है कि बिहार शिक्षक आंदोलनों संबंधी यह जानकारी शिक्षा और शिक्षकों की समस्याओं को सुधारने की दिशा में सक्रियता लाने में सहायक होगी।
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