बौद्ध धर्म मे भक्तियोग का विकास
‘बौद्ध धर्म में भक्तियोग का विकास’ विश्वप्रसिद्ध विद्वान डॉ. भरत सिंह उपाध्याय की अद्भुत-अपूर्व चिंतन से संपन्न कृति है। डॉ. उपाध्याय मानते रहे हैं कि उत्कृष्ट भक्ति ज्ञान और कर्म दोनों को अपने में समेटकर चलती है। श्रद्धा हो तो सामान्य-से-सामान्य आदमी भी भक्ति में प्रवेश पा जाता है। भक्ति संपूर्ण भारतीय चिंतनधारा में ऐसे आ बसी है कि हमारे जातीय अस्तित्व एवं व्यक्तित्व का अभिलक्षण बन गई है। आज वह हमारे सर्वभाव की कसौटी बन चुकी है। भक्ति शब्द का अर्थ है-बँटना, बाँटना, अखंड को समझने के लिए खंड-खंड होना, इस खंड-खंड को सबको बाँटना और अखंडता की ओर बढ़ना। इसी दृष्टि से भक्ति का एक अर्थ और है-सेवा, भजना, पूजना, मुख्य न रहना। इस भक्ति के समग्र अर्थ को पहचाने बिना भारतीय चिंतनधारा का गतिशील रूप समझ में नहीं आ सकता। भारत में वेद-उपनिषद्, पुराण, जैन, बौद्ध धर्म में भक्तियोग की एक लंबी कहानी है। जो भारत में उत्पन्न होकर वहाँ समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि मध्य एशिया और पूर्वेशिया तक जाती है। यहाँ डॉ. उपाध्याय ने कृपापूर्वक भारत तक ही अपने विषय को सीमित रखा है और पालि परंपरा तथा बौद्ध संस्कृत ग्रंथों की परंपरा का आधार लेकर केवल भारतीय बौद्ध धर्म के अंदर पाए जानेवाले भक्ति तत्त्वों की गवेषणा की है। उन्होंने ध्यान दिलाया है कि गुरु-भक्ति बौद्ध धर्म में विद्यमान रही है, परंतु गुरुवाद नहीं। बुद्ध को बोधि किसी आचार्य के उपदेश से उन्हें प्राप्त नहीं हुई थी, न उन्होंने अपने किसी शिष्य की उत्तराधिकारी बनाया।
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