स्वर्गीय चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । राजनीति, साहित्य, अध्यात्म तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा। उन्होंने जिस क्षेत्र में पदार्पण किया, उसी पर अपनी छाप डाली।
राजाजी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने महाभारत, रामायण, उपनिषद आदि का गहराई से अध्ययन किया और अपने मौलिक चिंतन का लाभ पाठकों को दिया । उनकी ‘दशरथनन्दन श्रीराम’ तथा ‘महाभारत कथा’ पुस्तकें भारतीय वाङ्मय की अद्भुत कृतियां हैं। इन तथा उनकी दूसरी पुस्तकों को पढ़कर तृप्ति नहीं होती, बार-बार पढ़ने को जी करता है।
राजाजी की एक ही इच्छा थी और वह यह कि मनुष्य अच्छा मनुष्य बने। इसी के लिए उन्होंने विभिन्न विधाओं में साहित्य की रचना की । उनकी शैली में निराला प्रवाह है। गूढ़-से-गूढ़ विषय को सरल और सरस बना देने की कला में वह बेजोड़ थे। उनकी सारी पुस्तकों में, भले ही वह महाभारत का अनुशीलन हो, अथवा रामायण का; गीता का हो अथवा उपनिषद का; संत कवयित्री औवे का काव्य हो अथवा संत लारेंस का सौहृदयोग, सबके पढ़ने में कथा-कहानी जैसा रस और आनन्द आता है
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