मधुश्रावणी
इस्मत चुगताई सिर्फ उर्दू की मायानाज़ लेखिका ही नहीं, एक मुकम्मल इन्सान भी थीं। अपनी ‘रेवती’ और ‘गिरिबाबा’ के बारे में सबसे पहले मैंने उन्हीं को बताया था। मुझे उनकी आंखों की चमक आज भी याद है। उन्होंने बेहद खुश होकर ‘रेवती’ और ‘गिरिबाबा’ को अपने मिलने-जुलने वालों में शामिल कर लिया था। फिर जब भी, हम मिलते ‘रेवती’ की बात अकसर होती। उनके इस प्रोत्साहन ने ही मुझे यह कहानी कहने पर आमादा किया। इसलिए यह उन्हीं की पावन स्मृति को समर्पित है।
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