प्रकाशकीय हिन्दी पाठकों को स्व. श्रीमती जानकीदेवी बजाज की ‘मेरी जीवन यात्रा की पुनर्मुद्रित प्रति भेंट करते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है। आज से लगभग पचास साल पहले मण्डल ने इसका पहला संस्करण प्रकाशित किया था। काफी पाठकों से और कई सालों से इसके पुनर्मुद्रण की माँग हो रही थी और इसीलिए यह नया संस्करण प्रकाशित किया गया है। इसमें एक आदर्श नारी की जीवन गाथा प्रस्तुत है जो पारिवारिक क्षेत्र में प्रेम और निष्ठा के द्वारा और राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने त्याग और बलिदान के द्वारा एक आदर्श की स्थापना में सफल हो पायी थी। आशा की जा सकती है नयी पीढ़ी के नये पाठकों को यह पुस्तक रुचिकर लगेगी।
जानकीमैयाजी (श्रीमती जानकीदेवी बजाज) अपने ये संस्मरण प्रसंगवश लोगों को सुनाती रहती थीं। श्री रिषभदासजी रांका को सूझा कि इनको लिपिबद्ध कर लिया जाय और वह इस काम में लग गए। मैयाजी सुनाती जाती थीं, वह लिखते जाते थे। उन्होंने जो कुछ लिखा, वह बापूजी, जमनालालजी तथा जानकीमैयाजी के संपर्क में आनेवाले कई लोगों के हाथों से निकला और इस रूप में आ गया। लिखते हुए रिषभदासजी ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जहाँ तक हो भाषा, भाव तथा शब्दावली भी यथासंभव जानकीदेवीजी की ही रहे।
स्व० जमनालालजी गांधीजी के पाँचवें पुत्र बने थे। दत्तक पुत्र बनना कितना कठिन होता है, यह जमनालालजी के जीवन से परिचित लोग भलीभाँति जानते हैं, और ऐसे दत्तक पुत्र की पत्नी होना कितना कठिन रहा। होगा, यह पाठक इस कथा से जान जाएँगे। एक निरक्षर अबोध-बालिका के रूप में बजाज-परिवार में पहुँचकर नर्मदा के प्रवाह में पड़े कंकर की भाँति वह कहाँ-से-कहाँ पहुँच गईं ! उन्हीं अनुभवों, संस्मरणों एवं विचारों की ही यह कहानी है। जमनालालजी के संपर्क तथा बापूजी और विनोबाजी के सत्संग से किस प्रकार जीवन परिवर्तन हुआ, संघर्षों से पैदा हुई परिस्थितियों में उन्हाने कैसे अपने को ढाला और कैसे अपनी दढता से औरों को प्रभावित था, इसका बड़ा ही सजीव चित्र इन संस्मरणों में आ गया है।
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