एक नहीं था अफलातून
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘एक नहीं था अफलातून’ जैसा नाटक सतही समस्या प्रधानता से निकलकर जटिल बौद्धिकता के क्षेत्र में प्रवेश करने में सफल हुआ है। इसकी सफलता और सार्थकता का स्तर जो भी हो यह नाटक वैयक्तिक एवं सामूहिक जीवन की जड़ों तक जाने में समर्थ हुआ है। इस प्रक्रिया में जिनजी और सामाजिक संबंधों का ही नहीं, बल्कि जीवन और मूल्यों का भी निरीक्षण-परीक्षण करने की दिशा में दो कदम आगे बढ़ा है। यहां ‘अफलातून’ मात्र पात्र न होकर एक ठोस अनुभव है, विचार है, विचार ही मनुष्य के रूप में चरित्र है। इसलिए पात्र का अभिनय कम चरित्र का अभिनय अधिक है। साथ ही इस नाटक में गद्य-पद्य का संदर्भानुसार संयोजन हुआ है।
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