यथा प्रस्तावित
भारतीय कथा साहित्य को विशेषकर हिंदी कथा साहित्य को जिन प्रतिभाशाली रचनाकारों ने नए कथा मुहावरे से संपन्न एवं समर्थ बनाया है उन कथाकारों में एक चमकता-दमकता नाम है-गिरिराज किशोर। वे कथा कहते नहीं, कथा के पोर-पोर में सर्जनात्मकता का नया स्वाद या प्रभाव निष्पादित करते हैं। उनकी विशेषता है कि उपन्यास हो या कहानी या कोई संस्मरण वे हर बार एक परती जमीन तोड़ते हैं और तोड़कर उस पर नवीन फसल लहलहाने का सुख पाते हैं। उनका उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ गांधी जी पर लिखा एक ऐसा क्लासिकल संवेदनात्मक कथ्य का उपन्यास है जिसका अनुसंधान कार्य गांधी का एक नवीन पाठ ही नहीं उठाता, उसका नया भाष्य भी करता है। इस बहुवचनात्मक भाष्य की व्यंजनाएँ हमारे कथा-जगत् की मंत्र-सिद्ध उपलब्धियाँ हैं। इसका कारण है कि गिरिराज किशोर के उपन्यास नया कथ्य ही सामने नहीं लाते, नया फार्म भी आविष्कृत करते हैं। यहाँ कथ्य और फार्म को अलगाना कलाकृति के साथ अन्याय है। ‘यथा प्रस्तावित’ उपन्यास का पूरा रचनातंत्र चकित करनेवाला है और एक ऐसा प्रयोग है जो बहुत कुछ नया जोड़ता है-जिसे आप परंपरा से फूटी हुई आधुनिकता की रचना-दीप्ति का नाम भी दे सकते हो।
व्यापक जिंदगी की असलियत को पहचानने में लगा रचनाकार ‘जुगलबंदी जसा उपन्यास लिखे या ‘यथा प्रस्तावित जैसा उपन्यास या ‘चिड़ियाघर|
Reviews
Clear filtersThere are no reviews yet.