उदभ्रांत हिंदी के शीर्ष रचनाकार हैं। कवि के रूप में हिंदी साहित्य में उनकी बड़ी पहचान है। ‘नक्सल’ उनका पहला उपन्यास है, जिससे निस्संदेह एक सफल उपन्यासकार की पहचान भी बनेगी।
नक्सल आंदोलन वैसे तो 1970 के दशक की उपज है लेकिन उसकी विद्रूप धमक आज भी सुनाई पड़ती है। आज की तारीख में भारत के लिए एक बड़ी समस्या भी है। प्रश्न उठता है इस आंदोलन की शुरुआत जिन उद्देश्यों और प्रेरणाओं को लेकर हुई थी, क्या आज की तारीख में इसके प्रवक्ता उन मुद्दों में कायम हैं या वे उनसे भटक गए हैं? क्या आज नक्सलवादी आंदोलन खुद पूँजीवाद और सामंतवाद का शिकार हो गया है? बदरीनाथ की कहानी इसी ओर इशारा करती है।
इन सभी समस्याओं पर एक तटस्थ दृष्टिकोण के साथ इस उपन्यास में विचार किया गया है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर पिछले चालीस वर्षों से बहस हो रही है और आगे भी होती रहेगी। उसी की एक कड़ी के रूप में इस उपन्यास को पढ़ा जा सकता है। आशा है पाठक इसे पसंद करेंगे।
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