हिन्द स्वराज गाँधी का शब्द अवतार
लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए गांधी जी ने नवंबर 1909 में संवाद शैली में गुजराती में ‘हिंद-स्वराज’ लिखा था। दिसंबर 1909 में ‘इंडियन ओपिनियन’ में गुजराती मूलरूप में यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी। जनवरी 1910 में इसका पुस्तकाकार रूप प्रकाशित हुआ। मार्च 1910 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने पुस्तक को जब्त कर लिया। गांधी जी ने बहुत शीघ्र इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। इसके जब्त होने की कोई सूचना नहीं है। वस्तुतः यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है और उसको स्वीकार करने पर प्रश्नचिह्न है। ब्रिटिश संसदीय गणतंत्र की कटु आलोचना है और अंततः भारतीय आत्मा को स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह तथा सर्वोदय की सहायता से रेखांकित करने का प्रयत्न है।
नेहरू भारतीय आत्मा का पश्चिमी ढंग से नवीकरण चाहते थे और गांधी जी उसका फिर से आविष्कार करना चाहते थे। ‘हिंद-स्वराज’ के द्वारा गांधी जी ने हमें सावधान करना चाहा था कि उपनिवेशवादी मानसिकता या मानसिक उपनिवेशीकरण हमारे लिए कितना ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है। गांधी जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ‘हिंद-स्वराज’ के माध्यम से एक’ भविष्यद्रष्टा ऋषि की तरह पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृत्तियों के ख़तरनाक संभाव्य शक्ति का पर्दाफाश किया था।
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